4 जून की सुबह रामलीला मैदान में हुई घटना के बाद मैं बहुत दुविधा में था. मन दुखी था लेकिन यह सच है कि ऐसी घटनाएं नित्य बल्कि और भयावह रूप में हमारे जीवन में घटती रहती हैं. हम रोज़ ही झूठ, साजिश, धोखाघडी, अन्याय, हिंसा, शोषण, अत्याचार आदि के शिकार बनते, उनसे जूझते- उलझते, जीतते- हारते हैं. लेकिन रोज हम फिर से उठकर चल देते हैं. शुरू में तो हम दूसरों को दोष भी देते हैं-फलाने ने मुझे छला, उसने साजिश कि, इसने झूठ बोला, उसने मेरा शोषण-दमन किया आदि-आदि. लेकिन धीरे-धीरे आदमी का मन इन सबसे थक जाता है. यह सबकुछ बचकाना लगने लगता है. फलस्वरूप आदमी का मन अंतर्यात्रा की ओर अग्रसर होता है. वह तमाम छोटो-छोटी यात्राओं और ज़वाबों के आगे -पीछे चलना छोड़ देता है. वह एक बड़े सवाल के ज़वाब की तलाश में निकलता है. वह बड़ा सवाल, जिसमें जीवन और जगत के तमाम सवाल समाए हुए हैं. वह सवाल, जो हमारे होने की वजह को बतलाता-तलाशता है. वह सवाल जो देश-दुनिया की आतंरिक लयात्मकता को व्यक्त करता है. वह सवाल जो हर क्षण घटित होनेवाली घटनाओं के पीछे के शाश्वत मकसद को अभिव्यक्त करता है. वास्तव में तब कोई सवाल बचता ही नहीं. वहां सिर्फ और सिर्फ ज़वाब होता है. और जब कोई सवाल नहीं बचता तब कोई रुकावट भी नहीं आती. हम चलते जाते हैं बस. कोई रास्ता नहीं, कोई मंजिल नहीं. इसलिए कोई रुकावट भी नहीं. चलना सिर्फ चलने के लिए होता है. चलना यह सोचकर नहीं होता कि शाम होने से पहले फलां जगह पहुँच जाना है; और सुबह वहां से चल देना है. वास्तव में शाम या सुबह कहीं भी हो इसकी चिंता नहीं होती बल्कि सीधे शब्दों में कहें तो सुबह और शाम कि परवाह ही नहीं होती. वे सब अपनी जगह होते रहें. इसी प्रकार, चलने से पूर्व रास्ते का भी चुनाव नहीं होता. रास्ते हों भी तो अपनी जगह रहें. विकल्प भी यदि हों तो अपनी जगह. उनकी परवाह अंतर्यात्रा पर चलने वाला नहीं करता. वह तो चलता जाता है क्योंकि वह चलने के लिए चलता है.
इसलिए हे वत्स, उठो!
तो तुम अनंत की ओर चल दो. लेकिन हाँ, चलने से पूर्व एक दीया जला दो वत्स; क्योंकि यहाँ तो अँधेरा भी है और उजाला भी. दीया सांसारिकों को अँधेरे में राह दिखाएगा. ऐसा दीया जिसका निर्माण श्रृंखलाबद्ध विचारों से हुआ हो; जिसमें सत्य की बाती हो और न्याय का तेल (ईंधन) हो. इस दीये को कृपाकर जला दो ताकि चारों ओर निर्भयता, सादगी और शुचिता की ज्योति जल सके. फिर ये छोटे-मोटे काम जो तुम करना चाह रहे हो, लोग स्वयं ही कर लेंगे. तुम्हारा काम उस दीये को जला देने भर ही है वत्स! शेष काम अपने भाई-बंधुओं पर छोड़ दो; अपने देशवासियों पर छोड़ दो.
इसलिए हे वत्स, उठो!
कीचड़ में पड़े रोड़े की तरह मत गिरे रहो. ऊपर उठो! बड़ा बनो! विशाल बनो! विस्तृत होओं! तुम्हारी यात्रा तो सदियों से उस अनंत कि ओर अग्रसर है, जो सभी का गन्तव्य है- प्रकाश, उर्जा, हवा, जल, आकाश, मिट्टी सब वहीँ तक पहुँचते हैं. समय भी, जो भूत, वर्तमान और भविष्य भी होता है. हालाँकि वास्तव में समय सिर्फ समय ही होता है. वह भूत, वर्तमान और भविष्य नहीं होता. उसे हमने अपनी सुविधा के लिए ये नाम दिए हैं. वैसे ही जैसे राम, रहीम, इसा, नानक, बुद्ध, महावीर आदि. ...और ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि. इसलिए तुम इनमें न उलझो. तुम्हें दलदल में गिराने और गिराए रखने की भरपूर कोशिशें होती रहेंगी. सदा से होती रही हैं. लेकिन तुम्हें दलदल में नहीं धंसना है. तुम्हें तो अनंत कोटि जीवों की सेवा करनी है. इसलिए हे वत्स, उठो! और चल दो; उस अनंत की यात्रा पर, जहां पहुंचकर सबकुछ समाप्त हो जाता है-रात-दिन, अछा-बुरा, प्रकाश-अन्धकार, नया-पुराना सब. कुछ भी नहीं रहता. कोई फर्क नहीं रहता. बल्कि फर्क करने के लिए कुछ बचता ही नहीं. जब कोई विकल्प ही नहीं होता तो फिर अंतर कैसे हो?
तो तुम अनंत की ओर चल दो. लेकिन हाँ, चलने से पूर्व एक दीया जला दो वत्स; क्योंकि यहाँ तो अँधेरा भी है और उजाला भी. दीया सांसारिकों को अँधेरे में राह दिखाएगा. ऐसा दीया जिसका निर्माण श्रृंखलाबद्ध विचारों से हुआ हो; जिसमें सत्य की बाती हो और न्याय का तेल (ईंधन) हो. इस दीये को कृपाकर जला दो ताकि चारों ओर निर्भयता, सादगी और शुचिता की ज्योति जल सके. फिर ये छोटे-मोटे काम जो तुम करना चाह रहे हो, लोग स्वयं ही कर लेंगे. तुम्हारा काम उस दीये को जला देने भर ही है वत्स! शेष काम अपने भाई-बंधुओं पर छोड़ दो; अपने देशवासियों पर छोड़ दो.
anaryatra sukhad ho. shubhkamanayen
जवाब देंहटाएंkhoobsoorat post
जवाब देंहटाएंमित्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं,आपकी कलम निरंतर सार्थक सृजन में लगी रहे .
एस .एन. शुक्ल